उड़ चल, हारिल !
⭐प्रस्तावना
हारिल पक्षी |
हारिल/हरियाल - एक पक्षी
जो प्रतिक है आत्म - निर्भरता का, अपनी चोंच में तिनका लिए आज़ादी से खुले आकाश में झूमते हुए बिना किसी फ़िक्र के, मानों कह रहा हो ये असीमित नभ ही मेरा आश्रय हैं, मुझे किसी घोंसले की जरुरत नहीं |
किसी उदार पेड़ की झूलती शाखों की कृतज्ञता और जड़ों से बिछड़े हुए तिनको के सहयोग से बने घोंसले तक पर आश्रित न होकर 'हारिल' नामक उन्मुक्त पहाड़ी पक्षी अपने सहारे के रूप में स्वयं का खोजा एक तिनका अपने पंजों में दबाए पूरी दुनिया की आकाशीय-सैर करता है। हिन्दी के यायावर विश्व-कवि अज्ञेय संभवतः हारिल में अपना और अपने स्वाभिमान पर विश्वस्त हर रचनाकार का अस्तित्व ढूंढते हैं।
कवि - सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय
'
⭐शब्दांजलि
उड़ चल, हारिल, लिये हाथ में यही अकेला ओछा तिनका।
ऊषा जाग उठी प्राची में-कैसी बाट, भरोसा किन का!
शक्ति रहे तेरे हाथों में-छुट न जाय यह चाह सृजन की;
शक्ति रहे तेरे हाथों में-रुक न जाय यह गति जीवन की!
ऊपर-ऊपर-ऊपर-ऊपर-बढ़ा चीरता जल दिड्मंडल
अनथक पंखों की चोटों से नभ में एक मचा दे हलचल!
तिनका? तेरे हाथों में है अमर एक रचना का साधन-
तिनका? तेरे पंजे में है विधना के प्राणों का स्पन्दन!
काँप न, यद्यपि दसों दिशा में तुझे शून्य नभ घेर रहा है,
रुक न, यदपि उपहास जगत् का तुझ को पथ से हेर रहा है;
तू था सृष्टि, किन्तु स्रष्टा का गुर तूने पहचान लिया है!
मिट्टी निश्चय है यथार्थ, पर क्या जीवन केवल मिट्टी है?
तू मिट्टी, पर मिट्टी से उठने की इच्छा किस ने दी है?
आज उसी ऊध्र्वंग ज्वाल का तू है दुर्निवार हरकारा
दृढ़ ध्वज-दंड बना यह तिनका सूने पथ का एक सहारा।
मिट्टी से जो छीन लिया है वह तज देना धर्म नहीं है;
जीवन-साधन की अवहेला कर्मवीर का कर्म नहीं है!
तिनका पथ की धूल, स्वयं तू है अनन्त की पावन धूली-
किन्तु आज तू ने नभ-पथ में क्षण में बद्ध अमरता छू ली!
ऊषा जाग उठी प्राची में-आवाहन यह नूतन दिन का
उड़ चल हारिल, लिये हाथ में एक अकेला पावन तिनका!
⭐अज्ञेय की रचनाएँ
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- पुस्तक की भूमिका से
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